श्री रणछोड़ राय खेड़ तीर्थ, खेड़ बालोतरा (राज.)
हिन्दू मंदिरों की रचना का इतिहास लगभग 10,000 वर्ष पुराना माना जाता है। उस काल में वैदिक ऋषि अपने वन आश्रमों में ध्यान, प्रार्थना और यज्ञ किया करते थे। यद्यपि उस समय लोकजीवन में मंदिरों का महत्व आज की भांति नहीं था, परंतु आत्मचिंतन, मनन और शास्त्रार्थ का विशेष स्थान था। फिर भी आम जन शिव–पार्वती तथा नगर, ग्राम और स्थान विशेष के देवी–देवताओं की आराधना किया करते थे।
भारत में सर्वाधिक प्राचीन शक्तिपीठों और ज्योतिर्लिंगों की परंपरा रही है। प्राचीन काल से ही विष्णु, यक्ष, नाग, शिव, दुर्गा, भैरव और इंद्र की उपासना एवं प्रार्थना का प्रचलन रहा है। भारत देश सदैव से ही सनातन धर्म एवं तीर्थों के प्रति अपनी गहरी आस्था रखता आया है। देव उपासना और तीर्थ स्थलों ने हमारी सनातन श्रद्धा को सदैव पुष्ट और जीवंत रखा है।
ऐसा ही एक अनुपम और अद्वितीय तीर्थ है खेड़ तीर्थ, जहाँ इतिहास धड़कता है, स्थापत्य झूमता है, संस्कृति खिलती है और भगवत भक्ति का अमृत बरसता है।
सनातनी तीर्थों में से एक यह धर्म और संस्कृति का अमृतधाम खेड़ तीर्थ महाभारत काल से ही प्रसिद्ध है। यह भव्य एवं चमत्कारी धाम चतुर्भुज भगवान श्री रणछोड़ राय जी खेड़ का पावन स्थान है। यह तीर्थ अपने उत्कृष्ट शिल्पकला, विलक्षण बनावट और प्राचीनता के कारण अनेकों शताब्दियों से श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बना हुआ है।
वर्तमान में यह प्राचीन स्थल राजस्थान के पश्चिमी भाग में, औद्योगिक नगर बालोतरा से लगभग 8 किलोमीटर पश्चिम, बाड़मेर–जोधपुर रेल मार्ग पर स्थित है। इसका स्टेशन “खेड़ टेम्पल हॉल्ट” नाम से जाना जाता है। अब यह तीर्थ स्थल बाड़मेर–जोधपुर के पक्के सड़क मार्ग से भी सुगमता से जुड़ा हुआ है।
वर्तमान खेड़ मंदिर, जो अपनी प्राचीनता की दृष्टि से उत्तर मध्यकाल (विक्रम संवत 900–1200) के बीच निर्मित माना जाता है, में भगवान श्री रणछोड़ राय जी की चतुर्भुज प्रतिमा अपने भव्य स्वरूप से श्रद्धालुओं को आकर्षित करती है।
रणछोड़ नाम कैसे पड़ा?
पौराणिक कथाओं के अनुसार, कंस-वध के बाद कंस के ससुर जरासंध ने प्रतिशोध लेने हेतु मथुरा पर लगातार 17 बार आक्रमण किया, परंतु प्रत्येक बार श्रीकृष्ण एवं बलराम से पराजित हुआ। 18वें आक्रमण में उसने कालयवन नामक असुर को भी साथ लिया, जिसे ब्रह्मा जी से यह वरदान प्राप्त था कि वह किसी यदुवंशी के हाथों नहीं मरेगा।
श्रीकृष्ण जानते थे कि कालयवन को सीधे युद्ध में मारना संभव नहीं है। अतः उन्होंने लोकहितार्थ मथुरा त्यागकर आवर्त देश (वर्तमान ओखा) की ओर जाने का निर्णय लिया। रणभूमि छोड़कर वे खेड़ गाँव पहुँचे और यहीं रात्रि विश्राम किया।
प्रवर्षण पर्वत की एक गुफा में राजा मुचकुंद देवताओं के वरदान से गहरी निद्रा में सो रहे थे। श्रीकृष्ण ने अपना पीतांबर उनके ऊपर डाल दिया और स्वयं एक ओर खड़े होकर प्रतीक्षा करने लगे।
इधर कालयवन वहाँ पहुँचा और पीतांबर ओढ़े मुचकुंद को श्रीकृष्ण समझकर उन पर प्रहार किया। फलस्वरूप मुचकुंद की वरदानी दृष्टि पड़ते ही कालयवन भस्म हो गया। तभी भगवान श्रीकृष्ण ने अपना चतुर्भुज रूप धारण किया और मुचकुंद को दर्शन दिए।
इसी “रण छोड़ने” की घटना से भगवान श्रीकृष्ण ‘श्री रणछोड़ राय’ नाम से प्रसिद्ध हुए।
इसके बाद भगवान श्री रणछोड़ राय जी खेड़ से द्वारका गए और वहाँ अपने राज्य की स्थापना की।
प्राचीन शिल्पकला और मंदिर का वैभव
भगवान श्री रणछोड़ राय जी के अनेक चमत्कारिक तीर्थ स्थलों में खेड़ मंदिर का स्थान अत्यंत विशिष्ट है। यह न केवल ऐतिहासिक बल्कि धार्मिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसकी उत्कृष्ट शिल्पकला और विलक्षण बनावट आज भी इसके गौरवमय अतीत की झलक प्रस्तुत करती है।
मंदिर का ऊँचा शिखर आज भी इसकी समृद्धि और भव्यता का साक्षी है। मूर्तिकला को देखकर ऐसा अनुमान किया जाता है कि यह स्वरूप विक्रम पूर्व दूसरी शताब्दी से लेकर विक्रम की आठवीं–नवीं सदी तक का है। यह प्रतिमा लगभग 1800 वर्ष पूर्व की मानी जाती है।
विक्रम संवत 1232 में मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ और पुनः प्राण प्रतिष्ठा की गई। गर्भगृह में भगवान श्री रणछोड़राय जी की सुंदर कलाकृति से निर्मित भव्य प्रतिमा विराजमान है।
भगवान की प्रतिमा की विशेषता
गवान श्री रणछोड़ राय जी के दर्शन करने वाला भक्त मन ही मन तृप्त होकर भक्ति में लीन हो जाता है। उनकी नयनाभिराम शोभा का वर्णन शब्दों में करना कठिन है।
भगवान की प्रतिमा 5 फुट 6 इंच ऊँची है और एक ही पत्थर से निर्मित है। ऐसा बताया जाता है कि यह प्रतिमा भूमि से स्वतः प्रकट हुई थी तथा इसमें किसी प्रकार का जोड़ (ज्वाइंट) नहीं है।
प्रतिमा के चारों ओर भव्य श्वेत संगमरमर का तोरणद्वार है, जिसमें 14 लोकों का अद्भुत चित्रण किया गया है। भगवान के चरणों में राजा मनु और सतरूपा की मूर्तियाँ हैं, जो शिल्पकला की दृष्टि से अत्यंत विलक्षण हैं।
भगवान के द्वारपाल जय और विजय भी यहाँ विराजमान हैं। तोरणद्वार में अंकित विविध देवस्वरूप धार्मिक और कलात्मक दृष्टि से अनूठे हैं।
तोरणद्वार के मध्य विराजमान भगवान श्री रणछोड़ राय जी चतुर्भुज रूप में हैं, जिनके चारों हाथों में क्रमशः गदा, चक्र, पद्म और शंख हैं। उनका श्रृंगारित मुकुट और अलंकार भक्तों को अलौकिक आनंद प्रदान करते हैं।
गर्भगृह का द्वार देव-प्रतिमाओं की भाव-भंगिमाओं से युक्त है। इसके आगे चार प्रस्तर स्तंभों पर आधारित आकर्षक सभा मंडप है, जिसमें श्रीकृष्ण की रासलीलाएँ सुंदरता से उकेरी गई हैं।
परिक्रमा मार्ग में भगवान वाराह, श्री विष्णु, नृसिंह अवतार और अन्य दैविक स्वरूपों के दर्शन होते हैं। सभा मंडप के बाहर चार छोटे मंदिर हैं — श्री विष्णु, ब्रह्मा जी, हनुमान जी और लक्ष्मी जी के — जो भक्तों के आस्तिक भाव को पुष्ट करते हैं।
मंछापूर्ण बालाजी एवं शक्ति मंदिर
सभा मंडप के उत्तर दिशा में स्थित छोटे मंदिर में श्री हनुमान जी (बालाजी) की आदमकद चमत्कारिक प्रतिमा विराजमान है, जिन्हें “मंछापूर्ण बालाजी” कहा जाता है। दक्षिण भारत के तिरुअनंतपुरम स्थित अनंत शयन विष्णु के दर्शन जैसे यहाँ के बालाजी के दर्शन अत्यंत आकर्षक हैं।
आसपास के ग्रामवासी बालाजी को श्रद्धा से “खोड़िया बाबा” के नाम से पुकारते हैं। उनके चरणों में जन्म, विवाह और अन्य संस्कार संपन्न करवाकर भक्तजन मंगलमय जीवन का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
मुख्य मंदिर के बाहरी परकोटे में एक शक्ति मंदिर भी स्थित है, जिसमें महिषासुरमर्दिनी और चामुंडा देवी विराजमान हैं। यह मंदिर गोहिल वंश की कुलदेवी के रूप में पूजित रहा है। आज भी गुजरात से अनेक तीर्थयात्री यहाँ आकर इन देवियों की पूजा-अर्चना करते हैं।
इतिहास के झरोखे से
ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, गुप्तकालीन युग में यह स्थल एक समृद्ध नगरीय क्षेत्र रहा है। इसके प्राचीन नाम — खेड़ पट्टन, खेड़ पाटन, खेड़गढ़ और क्षीरपुर — प्रचलित रहे हैं।
विक्रम संवत 1232 से 1264 तक यह क्षेत्र गुहिल राजपूतों की राजधानी रहा, जिसमें लगभग 560 गाँव सम्मिलित थे। उस काल में पोपा बाई का शासन था, जिन्हें भगवान श्रीकृष्ण में अपार भक्ति थी।
खेड़ नगर का विस्तार लगभग 9 किलोमीटर में फैला हुआ था। इसका एक भाग पचपदरा तक, दूसरा तिलवाड़ा तक, और अन्य क्षेत्र सिणली, बोरावा, तेमावास, मेवानगर एवं जसोल तक विस्तृत था।
बाद में राठौड़ राजवंश के राजा राव सीहा जी ने यहाँ आकर खेड़ पर अधिकार किया और राठौड़ राज्य की स्थापना की। इतिहास में यहाँ पर गुर्जर, चावड़ा, प्रतिहार, दहिया, डामिया, गोड़, परमार, चौहान और गुहिल वंशों का भी शासन रहा है।
विक्रम संवत 1253 में कुतुबुद्दीन के गुजरात राज्य लूटने के बाद खेड़ पर भी आक्रमण का उल्लेख मिलता है। मंदिर के समीप स्थित पंचमुखी महादेव मंदिर भी अत्यंत प्राचीन है, जिसका पंचमुखी शिवलिंग अद्वितीय है।
वार्षिक मेले और तीर्थस्थल की सुविधाएँ
सदियों से यहाँ तीन प्रमुख वार्षिक मेले आयोजित होते आ रहे हैं —
- अन्नकूट मेला (कार्तिक पूर्णिमा) – देव दीपावली के अवसर पर आयोजित यह जोधपुर संभाग का सबसे बड़ा अन्नकूट मेला है, जिसमें हजारों श्रद्धालु दर्शन और प्रसाद का लाभ लेते हैं।
- राधाष्टमी मेला (भाद्रपद शुक्ल अष्टमी) – बरसाने के बाद केवल यहाँ पर राधारानी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। भक्तगण राधारानी को झूला झुलाते हैं और मनोकामनाएँ पूर्ण करने का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
- देवझूलनी एकादशी मेला (भाद्रपद शुक्ल एकादशी) – इस दिन बाल स्वरूप श्रीकृष्ण-राधा जी की सवारी नगर भ्रमण को निकलती है और भक्त पुष्पवर्षा कर ठाकुर जी का जलाभिषेक करते हैं।
इसके अतिरिक्त धनतेरस के शुभ अवसर पर दीपोत्सव का आयोजन भी होता है — अयोध्या के दीपोत्सव की तर्ज पर। पहले वर्ष 15,000 दीपक और दूसरे वर्ष 31,000 दीपमालाएँ मंदिर परिसर में प्रज्वलित की गईं।
प्रत्येक माह की पूर्णिमा को लाभार्थी परिवार मंदिर के मुख्य शिखर पर ध्वजा चढ़ाते हैं। विशेष रूप से भाद्रपद पूर्णिमा को बालोतरा से हजारों भक्त नाचते-गाते हुए पैदल यात्रा कर तीर्थ स्थल पहुँचते हैं।
वर्तमान में मंदिर प्रांगण में यात्रियों के लिए संपूर्ण वातानुकूलित धर्मशाला, भोजनशाला, बच्चों के झूले, और फूलों से सजा सुंदर बगीचा जैसी सुविधाएँ ट्रस्ट मंडल द्वारा उपलब्ध कराई गई हैं।
लेखन: